सोमनाथ मंदिर somnath temple

सोमनाथ मंदिर का इतिहास: एक सांस्कृतिक विरासत- Somnath temple history

भारत में अनेक मंदिर हैं, जो उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब से लेकर पश्चिम तक फैले हुए हैं। ये मंदिर विभिन्न देवी-देवताओं को समर्पित हैं और इन्हें अलग-अलग कालखंड में बनाया गया है। प्रत्येक मंदिर की अपनी अनूठी कहानी होती है। ये मंदिर लोगों की आस्था के लिए ही नहीं, बल्कि कई परिवारों के लिए जीवन का सहारा भी होते हैं। भारत के पश्चिमी तट पर एक ऐसा ही मंदिर है, जिसका इतिहास और यात्रा बेहद रोचक है।

बिल्कुल! हम गुजरात के वेरावल में स्थित एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक हिंदू मंदिर की बात कर रहे हैं, जिसे सोमनाथ मंदिर या देव पटन कहा जाता है। इसका महत्त्व धार्मिकता, संस्कृति और पौराणिक कथाओं के साथ-साथ इतिहास में भी बहुत महत्त्वपूर्ण रहा है। यह मंदिर हिंदू धर्म के सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है और इसे लॉर्ड शिवा के 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे पहला ज्योतिर्लिंग माना जाता है।

सोमनाथ मंदिर somnath temple

जब हम मॉनुमेंट्स की बात करते हैं, तो उसके निर्माण के समय और निर्माता के बारे में जानकारी होती है। लेकिन गुजरात के सोमनाथ मंदिर का निर्माण एकदम अनूठा है। क्योंकि हिंदू मिथोलॉजी के अनुसार, सोमनाथ मंदिर का स्ट्रक्चर पहले किसी मानव द्वारा नहीं, बल्कि खुद लॉर्ड सोम या मून गॉड ने बनाया था। इसके बाद इसे अनेक बार नष्ट किया गया और फिर अलग-अलग शासकों ने इसे फिर से बनवाया। लेकिन अभी भी यह अस्पष्ट है कि सोमनाथ मंदिर का पहला स्ट्रक्चर वास्तविकता में कब बनाया गया था। इसे 1st मिलेनियम के आर्ली सेंचुरी से 9th सेंचुरी CE के बीच माना जाता है।

अगर हम स्ट्रक्चर की बात करें, तो यह मंदिर तीन मुख्य हिस्सों में विभाजित है: गर्भगृह (जहाँ देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थित हैं) , सभा मंडप (जहाँ पूजा और समारोह होते हैं) और नृत्य मंडप (जहाँ नृत्य और कला का प्रदर्शन होता है) । इसके साथ-साथ, इसकी शीर्ष की ऊंचाई 150 फीट है और पीक पर लगे कलश का वजन 10 टन है। इसके अलावा, मंदिर का मुख्य ध्वज 27 फीट की ऊंचाई का है।

सोमनाथ मंदिर का इतिहास- Somnath temple history

दोस्तों, आइए जल्दी से इस शानदार इमारत के रोचक इतिहास को जानते हैं। सोमनाथ का स्थान प्राचीन काल से ही एक तीर्थ स्थान रहा है। इसकी वजह यह थी कि यहाँ तीन नदियों का मिलन होता था, अर्थात कपिला, हिरण और सरस्वती और पौराणिक कथा के अनुसार, जब एक श्राप के कारण चंद्रमा अपने चमक खो देते हैं, तो वह यहाँ की सरस्वती नदी में स्नान करके अपनी चमक वापस मिल जाता है। इसे हम ‘चंद्रमा की बढ़ती और घटती चमक’ के रूप में जानते हैं।

सोमनाथ मंदिर somnath temple

दोस्तों, दिलचस्प बात यह है कि इसी कथा के चलते इस शहर का नाम प्रभास, अर्थात चमक पड़ा। इस शहर के दूसरे नाम जैसे सोमेश्वर या सोमनाथ भी इसी कथा से निकले हैं। हालांकि, सोमेश्वर नाम का इतिहास में 9वीं शताब्दी के शुरुआत से ही उल्लेख मिलता है। इसका उल्लेख 805 से 833 AD तक शासन करने वाले गुर्जर-प्रतिहार राजा नागभट्टा द्वितीय के अभिलेखों में मिलता है। जिसमें बताया गया है कि उन्होंने सौराष्ट्र में कई तीर्थ स्थानों का दर्शन किया, जिनमें सोमेश्वर भी था। लेकिन इस अभिलेख पर इतिहासकार रोमिला ठापर कहती हैं कि यह अभिलेख मंदिर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं करता है और उस समय तक यह सिर्फ एक तीर्थ स्थान ही था।

कुछ लोग कहते हैं कि शायद चालुक्य राजा मूलराज ने 997 CE में इस जगह पर चंद्रमा के लिए पहले मंदिर बनाए थे। लेकिन कुछ इतिहासकार कहते हैं कि शायद मूलराज ने सिर्फ एक पुराना और छोटा मंदिर रेनोवेट कराया होगा। 1950 के बाद, सोमनाथ की जगह का खुदाई करने समय सोमनाथ मंदिर का सबसे पुराना रूप के कुछ बातें सामने आईं।

खुदाई में 10वीं सदी के मंदिर की नींव, उल्लेखनीय टूटे हुए हिस्से और मंदिर के एक प्रमुख, अच्छी तरह से सजाए गए संस्करण का विवरण दिखा। जिन्हें गुजराती इतिहासकार मधुसूदन ढाकी महमूद गजनवी ने तोड़ा हुआ मंदिर मानते हैं। खुदाई करने वाले पुरातत्वविद बी.के. ठापर कहते हैं कि 9वीं शताब्दी में सोमनाथ पाटन पर एक मंदिर का ढांचा जरूर था लेकिन उससे पहले ऐसा कुछ नहीं था।

महमूद ग़ज़नी का आक्रमण

सोमनाथ के साथ सबसे भयानक घटना 1026 में हुआ। जब भीमा प्रथम के राज में तुर्की के मुस्लिम बादशाह महमूद गजनवी ने सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण किया और लूट लिया। उन्होंने मंदिर की ज्योतिर्लिंग भी तोड़ दी और इस लूट में गजनवी ने 20 करोड़ Dinars की दौलत ले ली।

सोमनाथ मंदिर somnath temple

लेकिन 1038 AD के गोवा के एक कदम्ब राजा के लिखे हुए शिलालेख पर भरोसा करके रोमिला ठापर कहती हैं कि 1026 के गजनवी के छापे के बाद मंदिर का हाल चाल पता नहीं। क्योंकि ये शिलालेख में मंदिर का हाल चाल या गजनवी के छापे के बारे में जानबूझकर कुछ नहीं लिखा था। ये शिलालेख से यह पता चलता है कि मंदिर को सिर्फ 12 साल में जल्दी से ठीक कर दिया गया था और 1038 तक यह फिर से एक सक्रिय तीर्थ स्थान बन गया था। रोमिला ठापर इसका मतलब यह निकालती हैं कि गजनवी आक्रमण में मंदिर को पूरी तरह से बर्बाद नहीं किया गया था, शायद सिर्फ बुरा बरताव किया गया था।

11वीं सदी के पर्शियन विद्वान अलबरूनी ने 1026 AD में महमूद गजनवी के इस आक्रमण की पुष्टि की थी। अलबरूनी महमूद गजनवी के दरबारी थे और उन्होंने 1017 से 1030 AD के दौरान महमूद की सेना के साथ कई बार यात्रा की। इसके साथ ही अलबरूनी नॉर्थवेस्ट इंडियन सबकोंटिनेंट के क्षेत्र में भी रहे थे। अलबरूनी के अलावा इस आक्रमण को और भी कुछ इस्लामी इतिहासकारों जैसे Gardizi, Ibn Zafir और Ibn al-Athir ने भी माना है।

सोमनाथ मंदिर somnath temple

अलबरूनी ने लिखा है कि महमूद ने सोमनाथ मंदिर को तोड़ दिया और उसका आक्रमण करने का उद्देश्य सिर्फ मंदिर की लूट नहीं था, बल्कि एक सच्चे मुसलमान के धार्मिक भावनाओं को भी शांत करना था और महमूद जब गजनवी वापस आया तो वह हिंदू मंदिरों के महंगे सामानों से भरा हुआ था। लेकिन अलबरूनी इन आक्रमणों को आंखों देखी निंदा करते हैं, क्योंकि इससे भारत की समृद्धि को नुकसान हुआ। आक्रमणों के कारण हिंदुओं में विदेशियों के प्रति विरोध बढ़ गया और साथ ही महमूद के जीते हुए क्षेत्रों से हिंदू विद्वानों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ।

जमाल मलिक जो साउथ एशियन इतिहास और इस्लाम के विशेषज्ञ हैं, उनके अनुसार 1026 में महमूद गजनवी ने गुजरात के प्रसिद्ध तीर्थ स्थल सोमनाथ मंदिर को नष्ट करके इस्लाम के प्रतीक के रूप में अपनी पहचान बनाई। इसके साथ ही इस मंदिर के नष्ट करने की कहानी इस्लाम धर्म के विरोधी चित्रों को मिटाने के पर्शियन कथाओं में एक महत्त्वपूर्ण विषय बन गया।

11वीं सदी और उसके बाद के कई इस्लामी इतिहासकारों ने अपनी किताबों में सोमनाथ के नष्ट करने को एक उदाहरणीय और नेक काम के रूप में लिखा। एक ओर, इसने फ़ारसी लोगों को एक अनोखी विजय कहानी के माध्यम से प्रेरित किया। दूसरी ओर, इस कहानी और इतिहास ने महमूद को फारस के मुसलमानों के एक आदर्श नायक और इस्लामी योद्धा का दर्जा दिया। लेकिन सोमनाथ ने पुनर्निर्माण और प्रतिरोध की अपनी वीरतापूर्ण कहानियों से हिंदुओं को भी प्रेरित किया।

सोमनाथ मंदिर somnath temple

एक लिखावट के अनुसार 1143 से 1172 AD के बीच कुमारपाल नाम का राजा ने लकड़ी का मंदिर तोड़कर सोमनाथ मंदिर को पत्थरों से बनाया और उसमें रत्नों की सजावट की। लेकिन 1299 में अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति उलुघ खान ने गुजरात पर हमला किया और वाघेला राजा कर्ण को हराकर सोमनाथ मंदिर को फिर लूट लिया। उसके बाद 15वीं और 17वीं सदी की कुछ किताबों में लिखा है कि जालोर के राजा Rawal Kanhadade ने जालोर के पास दिल्ली की सेना पर हमला करके सोमनाथ की मूर्ति को वापस ले लिया और हिंदू बंदियों को छुड़ाया।

लेकिन कुछ और स्रोतों का कहना है कि मूर्ति को दिल्ली ले जाकर मुस्लिमों ने उसे पैरों से कुचल दिया। ऐसा कहने वाले स्रोतों में अमीर खुसरो की खज़ाना-उल-फतूह, ज़ियाउद्दीन बरानी की तारीख-ए-फिरोज़ और जीना प्रभा सूरी की विविध-तीर्थ-कल्प जैसी उसी समय या उसके करीब की किताबें हैं। इसलिए यह भी संभव है कि सोमनाथ की मूर्ति को Rawal Kanhadade ने बचाने की कहानी बाद में लिखने वालों ने बनाई हो। हालांकि यह भी संभव है कि खिलजी की सेना ने कई मूर्तियाँ दिल्ली ले गई थी और शायद Rawal Kanhadade की सेना ने उनमें से एक को वापस ले लिया हो।

1308 में सौराष्ट्र के राजा महिपाल प्रथम ने सोमनाथ मंदिर को फिर से बनाया और 1331 से 1351 के बीच उनके बेटे खेंगरा ने वहाँ लिंगम रखवाया। लेकिन 1395 में दिल्ली सल्तनत के गुजरात के अंतिम गवर्नर ज़फर खान ने मंदिर को तोड़ दिया और कुछ साल बाद 1451 में गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा ने मंदिर को फिर से नष्ट किया।

इस मंदिर को मुस्लिम राजाओं के बार-बार हमलों से बचना मुश्किल था और मुगल काल में भी यह सुरक्षित नहीं रहा। 1665 में मुगल बादशाह औरंगजेब ने सोमनाथ मंदिर को और भी मंदिरों के साथ तोड़ने का हुक्म दिया। औरंगजेब ने यह भी धमकी दी कि अगर हिंदू मंदिर में फिर से पूजा करना शुरू करेंगे तो मंदिर को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया जाएगा।

फिर भी उत्तर भारत में मराठों के बढ़ते प्रभाव से कई खराब हुए मंदिरों को फिर से जीवित किया गया और 1783 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर ने सोमनाथ मंदिर को फिर से बनाया। आज यह मंदिर पुराना सोमनाथ या अहिल्याबाई मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मुख्य सोमनाथ मंदिर से 200 मीटर दूर स्थित है। दोस्तों इस प्रकार मध्यकालीन काल में सोमनाथ मंदिर ने कई हमलों को सहा।

ब्रिटिश राज के समय सोमनाथ

इसके बाद ब्रिटिश राज के समय इसका इतिहास आगे बढ़ा। उस समय ज्यादा कुछ नहीं हुआ लेकिन Proclamation of the Gates एक प्रसिद्ध घटना थी। दोस्तों 1842 में ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल Lord Ellenborough ने Proclamation of the Gates जारी किया।

इसमें उन्होंने अफगानिस्तान में काबुल की लड़ाई में ब्रिटिश सेना को यह हुक्म दिया कि वह गजनी से गुजरते हुए भारत आएँ और महमूद गजनवी के मकबरे से सैंडलवुड के दरवाजे को भारत ले आएँ। यह माना जाता था कि यह दरवाजे महमूद ने सोमनाथ मंदिर को लूटते समय यहाँ से उठाए थे और एलनबोरो के हुक्म पर जनरल William Nott ने सितंबर 1842 में दरवाजे को हटा लिया और 6वीं जाट लाइट इन्फेंट्री की एक पूरी फौज को दरवाजे को भारत लाने का काम दिया गया।

हालाँकि, भारत आने पर पता चला कि यह गेट गुजराती या भारतीय डिज़ाइन का नहीं था और वे सैंडलवुड के भी नहीं थे, बल्कि गजनी के देवदार के पेड़ के थे। परिणामस्वरूप इसका सम्बंध सोमनाथ से नहीं माना गया। हालाँकि, यह गेट आज भी आगरा किले के स्टोर रूम में रखा हुआ है।

पुनर्निर्माण (1950-1951)

अब हम आजादी के बाद के समय में सोमनाथ मंदिर को फिर से बनाने की बात करते हैं। दोस्तों आजादी से पहले वेरावल जूनागढ़ राज्य का हिस्सा था जिसके राजा ने 1947 में पाकिस्तान के साथ मिलने का फैसला किया था। भारत ने इसे नहीं माना और एक मतदान कराकर जूनागढ़ को अपने अंडर ले लिया।

उसके बाद 12 नवंबर 1947 को भारत के उप प्रधानमंत्री वल्लभभाई पटेल ने सेना को जूनागढ़ भेजकर राज्य को स्थिर किया। उसी दौरान उन्होंने सोमनाथ मंदिर को फिर से बनाने का आदेश दिया और जब पटेल, केएम मुंशी और कांग्रेस के दूसरे नेता इस बात को गांधी जी के सामने लाए तो गांधी जी ने इसे समर्थन किया। उन्होंने यह भी कहा कि मंदिर को बनाने का खर्च जनता से इकट्ठा किया जाए, सरकार से नहीं।

सोमनाथ मंदिर somnath temple

जहाँ एक ओर यह प्रोजेक्ट गांधी जी को गर्व का अनुभव था तो वहीं मंदिर को बनाने से पहले ही गांधी और पटेल का निधन हो गया और मंदिर का काम केएम मुंशी के हाथ में रह गया। वे तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल में खाद्य और नागरिक आपूर्ति के मंत्री थे। मंदिर को बनाने के दौरान अक्टूबर 1950 में खंडहरों को हटा दिया गया और मंदिर के पास जो मस्जिद थी उसे निर्माण वाहनों का उपयोग करके कुछ किलोमीटर दूर स्थानांतरित कर दिया गया और अंत में 11 मई 1951 को केएम मुंशी के बुलाने पर भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने मंदिर में मूर्ति को स्थापित करने की विधि की।

Architectural इतिहास

इस इतिहासपूर्ण मंदिर की कहानी को समझने के लिए सोमनाथ मंदिर और समुद्र किनारे को कई बार खोदकर जांचा गया है। सबसे बड़ा खुदाई काम आजादी के बाद फिर से बनाने से पहले 1950-51 में हुआ था। इसका नेतृत्व आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के एक डायरेक्टर बी के थापर ने किया था। बी के थापर की जांच से पता चला कि 10वीं सदी या उससे पहले का एक बड़ा मंदिर यहाँ था। उन्होंने यह अनुमान लगाया कि पुराना मंदिर लगभग 9वीं सदी का था।

इसके अलावा भारतीय मंदिर आर्किटेक्चर के एक विशेषज्ञ धाकी का कहना है कि यह मंदिर 10वीं सदी में 960 से 973 CE के बीच बना था। थापर की जांच में कुछ चीजें और खंडहर भी मिले जिन पर पुरानी लिपियाँ लिखी थीं। वे लिपियाँ ब्राह्मी या उसके बाद की प्रोटोनागरी या नागरी थीं। दोस्तों इन लिपियों से पता चलता है कि सोमनाथ पाटन का इतिहास पहले हजार वर्षों का है। फिर भी सोमनाथ मंदिर के पास कुछ सोमनाथ पाटन के स्थानों को 1970 में M K Dhavalikar और Z D Ansari के नेतृत्व में फिर से खोदा गया। इस बार कई जगहों पर गहरी खुदाई की गई जिससे पता चला कि यहाँ के लोगों के पांच दौर के सबूत मिले।

इसके बाद 1992 में एम के धवलीकर और इंडस वैली के एक प्रसिद्ध आर्कियोलॉजिस्ट ग्रेगोरी पोसेहल ने प्रभाष पाटन की अपनी खोजों का विश्लेषण की रिपोर्ट दी। उनके विश्लेषण से पता चला कि सोमनाथ साइट Pre-2nd millennium BCE से पहले के दौर से ही पुराने मानव बसेरों के सबूत दिखाती है। उन्होंने इसे एक दौर के “Pre-Harappan Phase” का भी श्रेय देते हैं। लेकिन उनकी खोजों में सिर्फ मिट्टी के बर्तन, कपड़े और आभूषण ही मिले, कोई पुराना मंदिर का हिस्सा नहीं मिला।

इसके अलावा चार्ल्स हरमन की आलोचनात्मक समीक्षा के अनुसार जो भी सबूत मिले थे, उनमें से किसी का भी Pre-1st millennium BCE से पहले के समाज और संस्कृति से सीधा सम्बंध नहीं था। लेकिन उनका कहना है कि इस बात के काफी सबूत हैं कि प्रभाष पाटन एक प्राचीन हड़प्पा स्थल था। जहाँ की मिट्टी में खेती के साथ-साथ पशुओं की पालन-पोषण भी किया जाता था। हालांकि इसके अलावा जो प्रभाष पाटन के टीले खोदे गए थे वह 2000 से 1800 BCE के बीच के लगातार हड़प्पा बसेरों के सबूत दिखाते हैं।

निष्कर्ष

दोस्तों यह था इस प्रसिद्ध मंदिर का इतिहास जो अनेक घटनाओं और हिंदू धर्म के उतार-चढ़ाव का भी महत्त्वपूर्ण प्रतीक रहा है। कई विदेशी आक्रमणों और नुकसानों के बावजूद भी यह मंदिर एक सक्रिय तीर्थ स्थल बना रहा है जो न केवल इस मंदिर की महत्ता को बताता है बल्कि हिंदू धर्म की मजबूती को भी दर्शाता है। इसके साथ ही इस मंदिर को फिर से बनाने का काम आधुनिक भारतीय समाज के सांस्कृतिक विरासत और सांस्कृतिक स्मृति को जीवित रखने का प्रयास भी दिखता है।

(मुझे आशा है कि आपको यह लेख पढ़ने में आनंद आया होगा। यदि आपको यह लेख पढ़ने में आनंद आया है, तो कृपया इसे अपने दोस्तों के साथ साझा करें। इस लेख को पढ़ने के लिए अपना बहुमूल्य समय निकालने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यदि आपके कोई सुझाव या प्रश्न हों तो कृपया हमसे संपर्क करें।)

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