आइए, ‘चाय का इतिहास’ नामक इस ब्लॉग पोस्ट के जरिए चाय की दिलचस्प यात्रा को समझते हैं। चाय की गहराईयों में उतरने के लिए, इस पोस्ट को शुरू से अंत तक जरूर पढ़ें।
चाय न केवल भारतीयों के दिन की शुरुआत का एक साधारण पेय है, बल्कि यह हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग भी है। यह मीठा और संतुलित पेय न केवल ताजगी देता है बल्कि बातचीत के लिए एक आदर्श साथी भी है। चाय का उपयोग कई लोग मनोरंजन के लिए करते हैं, जबकि कई लोगों के लिए यह उनकी जीविका का साधन भी है। कुछ के लिए यह एक तरोताजा करने वाला पेय है, तो कुछ के लिए यह गपशप करने का एक बहाना है। चाय आजकल गपशप संस्कृति का एक हिस्सा है और यह एक घरेलू परंपरा भी बन चुकी है। इस प्रकार, चाय भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक और सामाजिक-आर्थिक ताने-बाने का एक अनिवार्य तत्व है।
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आपको जानकर आश्चर्य हो सकता है कि भारत दुनिया भर में चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है। 2021 में, भारत ने 13 लाख टन से अधिक चाय का उत्पादन किया, जिसका लगभग 90% भारत में ही उपभोग किया गया। यह बताता है कि चाय भारतीय संस्कृति में कितनी महत्वपूर्ण है। यह रिश्ता इतना गहरा है कि यह अनंत काल से चला आ रहा है। चाय की यह विशेषता है कि यह विभिन्न प्रकार के लोगों को एक साथ लाती है, चाहे वह एक साधारण घरेलू चर्चा हो या एक बड़ी सामाजिक सभा। चाय के आसपास बनने वाले संबंध और संवाद भारतीय समाज के मूल में हैं, और यह प्रत्येक भारतीय के दैनिक जीवन का एक अभिन्न अंग है।
चाय की चुस्की के साथ न केवल दिन की शुरुआत होती है, बल्कि यह दिन भर की थकान को दूर करने का एक जरिया भी है। इस प्रकार, चाय भारतीय समाज के हर पहलू में अपनी एक खास जगह रखती है।
भारत में चाय की महत्ता 19वीं सदी के मध्य में उजागर हुई। आपको हैरानी होगी कि इससे पहले, चाय का इस्तेमाल भारत में केवल कुछ खास जगहों पर औषधीय पौधे के रूप में होता था। तो आइए, इस अद्भुत सफर को जानें कि कैसे चाय भारत में आई और इतनी लोकप्रिय हो गई कि आज अधिकांश लोग इसके बिना अपना दिन शुरू नहीं कर सकते। ‘चाय पर चर्चा’ में हम आपको चाय के इतिहास और इसके भारतीय समाज में महत्व के बारे में बताएंगे। तो चलिए, इस चर्चा को आरंभ करते हैं।
चाय की खोज (चाय का इतिहास)
चाय की खोज एक संयोग से हुई, जिसमें किसी वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता नहीं थी। इतिहास के पन्नों में दर्ज है कि लगभग 5000 वर्ष पहले, चीन के सम्राट शेननोंग ने अनजाने में चाय की खोज की। वे अपनी सेहत के लिए प्रतिदिन सुबह गर्म पानी पीते थे। एक दिन, उनके बागान में आराम करते समय, कुछ पत्तियां उनके पानी में गिर गईं, जिससे पानी का रंग और स्वाद बदल गया। इस घटना ने चाय की खोज का मार्ग प्रशस्त किया।
एक सुबह, सम्राट शेननोंग अपनी नियमित सैर से लौटे और आराम करने के लिए बैठ गए। उनके सेवकों ने उनके लिए गर्म पानी रखा, और वे अपने सलाहकारों के साथ बातचीत में लीन हो गए। इसी दौरान, पास की झाड़ी से कुछ पत्तियां उनके पानी में गिर गईं, जिससे पानी का रंग और सुगंध बदल गई। सम्राट ने देखा कि पानी का रंग बदल चुका है, और उन्होंने इसे पीने का निर्णय किया, भले ही उनके दरबारी ने उन्हें चेतावनी दी कि पत्तियां जहरीली हो सकती हैं। सम्राट ने उनकी चेतावनी को अनसुना कर दिया और पानी पी लिया।
जब सम्राट ने उस पानी को पिया, उन्हें एक नई ताजगी का अनुभव हुआ और उन्हें उसका स्वाद भी बहुत भाया। इसके बाद, उन्होंने अपने दरबारियों को उन पत्तियों की खोज करने का आदेश दिया और निर्देश दिया कि अब से उन्हें रोजाना उन्हीं पत्तियों से बना उबला हुआ पानी परोसा जाए। धीरे-धीरे, यह पेय इतना प्रसिद्ध हो गया कि न सिर्फ सम्राट बल्कि अन्य दरबारी भी इसे पीने लगे। समय के साथ, यह चीन की आम जनता का पसंदीदा पेय बन गया और चीन ने अपने देश में आने वाले विदेशी मेहमानों का स्वागत इसी पेय के साथ करना शुरू किया।
हालांकि, चीनी निवासियों को इस रेसिपी को बाहरी लोगों के साथ साझा न करने की सख्त हिदायत दी गई थी, जिसके कारण वर्षों तक दुनिया के अन्य हिस्सों में चाय के बारे में जानकारी नहीं पहुंची।
चाय, जो एक पूर्णतः प्राकृतिक पेय है, ने चीन के बौद्ध भिक्षुओं को भी आकर्षित किया। उन्होंने इसे अपनाया क्योंकि इससे उन्हें गर्मी और ताजगी का अनुभव होता था, और यह उन्हें लंबे समय तक जागृत रखती थी, जिससे वे ध्यान में अधिक समय तक लीन रह सकते थे।
जबकि चीन की आम जनता और दरबारी चाय के रहस्य को गुप्त रखते थे, लेकिन बौद्ध भिक्षु जहां भी जाते, चाय की पत्तियों को साथ ले जाते और उसे बनाकर पीते और दूसरों को भी पिलाते थे। समय के साथ, ये भिक्षु चाय को अन्य देशों में ले गए और वहां के लोगों ने भी इसकी सराहना की। इस प्रकार, चाय की जानकारी जापान, भूटान, नेपाल और अंततः भारत तक पहुंची।
अंग्रेज और चाय
भारत में चाय का परिचय ब्रिटिशों द्वारा किया गया था। ब्रिटिशों का चाय से आमना-सामना काफी लेट हुआ, जबकि चीनी लगभग 2000 वर्षों से इसे पी रहे थे। चाय का पहला उल्लेख अंग्रेजी डायरी लेखक Samuel Pepys की ईयर 1600 की डायरी में मिलता है, जहां उन्होंने इसे ‘Tcha’ के रूप में उल्लेखित किया और इसे “उत्कृष्ट और सभी चिकित्सकों द्वारा अनुमोदित, चीनी पेय” कहा। Pepys ने अपनी डायरी में बताया कि 1635 में इंग्लैंड में चाय को 6 से 10 यूरो प्रति पाउंड के दर पर बेचा जाता था, जो इसकी उस समय की महत्वता को दर्शाता है।
1662 में, जब इंग्लैंड के राजा चार्ल्स द्वितीय ने पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन ऑफ ब्रागांजा से विवाह किया, तो उन्हें दहेज में बॉम्बे द्वीप के साथ-साथ चाय से भरा एक संदूक भी मिला। इससे उस युग में चाय की महत्ता का अंदाजा लगाया जा सकता है।
आइए 18वीं सदी की ओर चलते हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद, इंग्लैंड में अमीर वर्ग का उदय हुआ, जिन्होंने चाय और कॉफी जैसे पेय पदार्थों की मांग बढ़ा दी। उस समय, चाय की आपूर्ति का जिम्मा ईस्ट इंडिया कंपनी के पास था, जो इसमें सफल नहीं हो पा रही थी। इसका लाभ उठाते हुए, एक डच कंपनी J.J. Voute & Sons ने इंग्लैंड में चाय की तस्करी शुरू कर दी। हालांकि, यह चाय निम्न गुणवत्ता की थी और जल्द ही इसे उपयोग के लिए अनुपयुक्त माना जाने लगा। इसके परिणामस्वरूप, इंग्लैंड में अच्छी गुणवत्ता की चाय की उपलब्धता बंद हो गई और ईस्ट इंडिया कंपनी को इस समस्या का हल जल्दी खोजना था।
यह तो बात हुई ब्रिटिशों के चाय से परिचय की। आगे बढ़ते हैं भारत की ओर, जहां 18वीं सदी में ईस्ट इंडिया कंपनी अपने व्यापार को बढ़ा रही थी। चलिए देखते हैं कि कैसे ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में चाय का परिचय कराया और इसे निर्यात केंद्र के रूप में स्थापित किया।
भारत में चाय
18वीं शताब्दी में, बॉम्बे ब्रिटिश भारत का व्यापारिक केंद्र बन गया था। इस समय, ब्रिटिश के अलावा डच और पुर्तगाली जैसे अन्य यूरोपीय देश भी व्यापार कर रहे थे, जिन्होंने ब्रिटिश की एकाधिकार को चुनौती दी। बॉम्बे के व्यापारिक केंद्र बनने के साथ ही, इन देशों ने भी अपना व्यापार बढ़ाना शुरू कर दिया, जिससे ब्रिटिश और डच के बीच प्रतिस्पर्धा बढ़ गई। इस प्रतिस्पर्धा के परिणामस्वरूप एंग्लो-डच युद्ध हुए, जिससे ईस्ट इंडिया कंपनी के संसाधन समाप्त होने लगे और उन्हें चीन से चाय खरीदने के लिए चांदी की कमी महसूस होने लगी।
इस समस्या का समाधान करने के लिए, ब्रिटिशों ने भारत में अफीम का उत्पादन शुरू किया और चीन में इसे तस्करी करने लगे। अफीम के बदले में, वे अपने पसंदीदा पेय, चाय को भारत लाते रहे। फिर भी, ब्रिटिश चाय उत्पादक भारत में चीनी चाय और तकनीकों को लाने के लिए उत्सुक थे, क्योंकि इससे वे स्वावलंबी बनते और उन्हें तस्करी पर निर्भर नहीं रहना पड़ता। इसके अलावा, वे भारत को चाय का निर्यात केंद्र बनाना चाहते थे, जिससे उनकी आय भी बढ़ती।
फिर दोस्तों, 1788 में एक महत्वपूर्ण घटना घटी जब लंदन की द रॉयल सोसाइटी ऑफ आर्ट्स ने चीन से चाय के पौधों को भारत लाने पर चर्चा शुरू की। यह संस्था, जिसे 1754 में स्थापित किया गया था, का उद्देश्य सामाजिक समस्याओं के व्यावहारिक समाधान खोजना था। इस संस्था की मदद से भारत में चाय बागानों पर शोध शुरू हुआ। इसके प्रयासों से, स्कॉटिश जेंटलमैन Robert Bruce ने पता लगाया कि असम में पहले से ही चाय की खेती हो रही थी।
असम के एक सम्मानित व्यक्ति मनीराम दीवान ने ब्रूस को असम की चाय से परिचित कराया। ब्रूस ने देखा कि असम की Singhpo जनजाति चाय की खेती कर रही थी, जिसके बारे में बाहरी दुनिया को पता नहीं था। उन्होंने यह भी पाया कि यहां की जलवायु चाय की खेती के लिए उपयुक्त थी, और इसी कारण उन्होंने 1824 में असम में चाय बागानों को व्यावसायिक स्तर पर पेश किया। ये बागान धीरे-धीरे पूरे असम और दार्जिलिंग क्षेत्र में फैल गए।
इसके बाद, 1833 में ब्रिटेन ने चार्टर एक्ट पारित किया, जिसके अनुसार ईस्ट इंडिया कंपनी ने चीन के साथ अपनी व्यापारिक एकाधिकार को खो दिया। इसके बाद, 1834 में गवर्नर जनरल विलियम बेंटिंक के नेतृत्व में एक चाय समिति का गठन किया गया, जिसका कार्य चाय की खेती, प्रसंस्करण और व्यापार पर नजर रखना था। उसी वर्ष, ब्रिटिश कंपनी Jardine Matheson ने चीन में चाय के बीज और तकनीकों को सीखने के लिए Charles Gutzlaff और George Gordon को भेजा, हालांकि यह मिशन विशेष रूप से सफल नहीं हुआ।
दस साल बाद, Scottish Horticulturist Robert Fortune चीन के चाय बागानों के नमूने लेने और उनका अध्ययन करने का उद्देश्य से चीन गए। ब्रिटेन वापस आने पर, उनके अध्ययनों और निष्कर्षों से प्रभावित होकर, ईस्ट इंडिया कंपनी ने उन्हें नियुक्त किया और उन्हें “Great British Tea Heist” नामक मिशन दिया, जिसका अर्थ था चीन से चाय के नमूनों की तस्करी करना। फॉर्च्यून ने इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और उन्हें चाय के अलावा अन्य वनस्पतियों के नमूने लाने का भी काम सौंपा गया। किसे पता था कि फॉर्च्यून जल्द ही ब्रिटेन की चाय उद्योग को हमेशा के लिए बदल देंगे।
The Great Tea Robbery
चलिए, रॉबर्ट फॉर्च्यून के प्रसिद्ध मिशन “द ग्रेट टी रॉबरी” के बारे में जानते हैं। 1848 में, फॉर्च्यून ने चीन में प्रवेश किया, एक स्थानीय व्यक्ति की वेशभूषा में, अपने सहायक के साथ। उन्होंने Wuyi Shan क्षेत्र की चाय फैक्ट्री का दौरा किया, इसके बाद Zhejiang और Anhui के चाय बागानों का भी। यह अभियान तीन महीने तक चला। 1849 में, उन्होंने बताया कि वे चाय के बीज और छोटे पौधों को बड़ी मात्रा में लाने में सफल रहे, जिन्हें जल्दी से Hongkong से कोलकाता पहुंचाया गया। कुल 1300 पौधों के नमूने और लगभग 10000 बीज थे, जिन्हें ग्लास बोतलों में भरकर भारत लाया गया।
इन नए पौधों की मदद से, ब्रिटिश उत्पादकों ने पूर्वी भारत में स्थानीय रूप से उगाई गई चाय को फैलाया, जिससे ब्रिटिश चाय उद्योग में तेजी आई। और इस तरह, भारत में चाय का व्यापक पैमाने पर परिचय हुआ।
भारतीय चाय का अंतर्राष्ट्रीय प्रसार
आइए देखते हैं कि कैसे भारतीय चाय ने विश्वभर में अपनी पहचान बनाई। रॉबर्ट फॉर्च्यून की प्रसिद्ध ‘चाय चोरी’ से पहले भी, Jardine Matheson नामक कंपनी ने चीन में एक मिशन भेजा था। 1834 के बाद, इस कंपनी ने असम में छोटे पैमाने पर चाय उत्पादन आरंभ किया। 1838 में, भारत में उत्पादित चाय को पहली बार ब्रिटेन भेजा गया। 1853 तक, भारतीय चाय उत्पादन इतना बढ़ गया कि ‘Fraser’ पत्रिका ने भारत को चाय के पौधे का प्राकृतिक घर कहा। 1888 तक, ब्रिटेन द्वारा आयातित चाय में भारतीय चाय का हिस्सा चीनी चाय से भी अधिक हो गया।
1880 में, भारतीय चाय ने लंदन, आयरलैंड, स्कॉटलैंड, यूरोप और अमेरिका के कई हिस्सों में बाजार पर कब्जा कर लिया, मानो इन क्षेत्रों को भारतीय चाय ने ‘उपनिवेश’ बना लिया हो। 1881 में, लंदन की ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट पर पहला ‘द इंडियन टी स्टोर’ खुला। भारत के आंतरिक बाजार की बात करें तो, 1878 में दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे के शुरू होने के बाद चाय का बाजार और भी बढ़ा। 1901 तक भारत चाय का एक बड़ा बाजार बन गया था और 1903 में एक ‘टी सेस बिल’ भी पास किया गया, जिसका उपयोग भारत और विश्वभर में चाय के प्रचार के लिए किया जाना था।
इस विस्तार के साथ, भारतीय चाय ने अपनी गुणवत्ता और विशिष्ट स्वाद के लिए वैश्विक पहचान बनाई। चाय के बागानों की वृद्धि और उत्पादन में वृद्धि ने भारत को एक प्रमुख चाय निर्यातक बना दिया। चाय की इस बढ़ती मांग ने न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को बल दिया, बल्कि भारतीय चाय को एक वैश्विक प्रतीक के रूप में स्थापित किया। आज, भारतीय चाय अपने अनूठे आकर्षण के साथ दुनिया भर में चाय प्रेमियों के बीच प्रिय है।
भारतीयों के बीच चाय कैसे लोकप्रिय हुई?
आइए जानते हैं कि चाय भारतीय आम जनता के बीच कैसे लोकप्रिय हुई। पहले विश्व युद्ध के बाद, चाय की लोकप्रियता भारतीय लोगों में बढ़ने लगी। भारतीय और यूरेशियन विक्रेताओं ने बंगाल, पंजाब और सीमांत प्रांतों के रेलवे स्टेशनों पर चाय बेचना शुरू किया, जहां रेलवे यात्रा बहुत लोकप्रिय थी। इससे चाय आम लोगों की नजर में आई। चाय की लोकप्रियता बढ़ाने के लिए, भारतीय भाषाओं में चाय बनाने की विधियों के बड़े पोस्टर और होर्डिंग्स पूरे देश में लगाए गए, जिससे चाय और भी प्रसिद्ध हो गई।
पहले चाय को केवल ब्लैक टी के रूप में पिया जाता था। कुछ विक्रेताओं ने इसमें सुधार करने की कोशिश की और ब्लैक टी में दूध मिलाना शुरू किया, जो लोगों को बहुत पसंद आया। धीरे-धीरे यह चाय एक मिश्रित पेय बन गई, जिसमें दूध और चीनी को अधिक मात्रा में मिलाया जाने लगा। 1930 तक, भारत न केवल ब्रिटिश पैकेज्ड चाय का उत्पादन करने लगा, बल्कि एक बड़ा बाजार भी बन गया। 21वीं सदी तक, भारत अपने कुल उत्पादन का 70% चाय स्वयं ही उपभोग करने लगा। आज हम भारतीय इस पेय का आनंद लेते हैं, बिना यह जाने कि कैसे एक स्कॉटिश व्यक्ति ने लगभग 170 साल पहले हमें यह लोकप्रिय पेय उपहार में दिया था।
(मुझे आशा है कि आपको यह लेख पढ़ने में आनंद आया होगा। यदि आपको यह लेख पढ़ने में आनंद आया है, तो कृपया इसे अपने दोस्तों के साथ साझा करें। इस लेख को पढ़ने के लिए अपना बहुमूल्य समय निकालने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद। यदि आपके कोई सुझाव या प्रश्न हों तो कृपया हमसे संपर्क करें।)